Wednesday 30 March 2011

वन्या पहुंची तीसरी में


वन्या तीसरी क्लास में पहुंच गई। सच्ची यकींन ही नहीं होता....इतनी जल्दी..!!! कल जब मैं उसका रिज़ल्ट ले कर घर लौट रही थी तो रास्ते में रहने वाली हिमानी ने पूछा, "भाभी, वन्या का रिज़ल्ट मिल गया ना? मैंने कहा, "हां, स्कूल से ही आ रही हूं।" हिमानी खुद आठवीं में है, पास हो जाएगी तो नवीं में जाएगी। हालांकि कद-काठी में वह वन्या से दो-तीन साल ही बड़ी लगती है।
"कौन सी डिविजन आई है वन्या की?" हिमानी ने उतावली से पूछा।
"बेटा उनके स्कूल में डिविजन नहीं आती, सब बच्चे पास होते हैं बस! " मेरा जवाब था।
हिमानी ने थोड़े शक के साथ मुझे देखा। नंबर कितने-कितने हैं दिखाओ तो...!! ऐसी उन्मुक्त जिज्ञासा के साथ किसी ओर के मसले में ताका-झांकी अब शायद गांवों में ही संभव है।
"अरे उनके यहां नंबर नहीं मिलते," मैंने उसे समझाया। अब तो बात सचमुच उसकी समझ से बाहर थी।
"फिर रिज़ल्ट में क्या देते हैं वो? उसने खालिस कुमाउंनी लहज़े में सवाल किया।
"इसमें लिखा है कि बच्चे ने इस साल क्या-क्या सीखा।" मैंने जवाब दिया।
"अच्च्छ्छा"!!! क्लास में किसी डिविजन और नंबरों के बिना वाले इस रिज़ल्ट में अब हिमानी की दिलचस्पी खत्म हो चुकी थी।
आगे बढ़ते हुए मैंने एक बार फिर से अहसास किया कि जहां हम रह रहे हैं वहां की मौजूदा शिक्षा सुविधाओं के बीच वन्या का जैसा स्कूल होना हमारे लिए एक वरदान की तरह है।

सात साल पहले जब हम यहां आए थे तो आसपास कोई ढंग का स्कूल नहीं था लेकिन तब वन्या महज कुछ महीनों की थी इसलिए यह मुद्दा हमारी तत्कालीन समस्याओं में नहीं था। खुशकिस्मती से जब तक वह स्कूल जाने लायक हुई एक स्थानीय गैर सरकारी संस्था चिराग यह स्कूल शुरु कर चुकी थी। इसका उद्देश्य आसपास के गांव के बच्चों को स्तरीय प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना था। आठ-दस बच्चों के साथ शुरु हुए इस स्कूल में अब बच्चों की संख्या सौ के आसपास पहुंच चुकी है और बच्चों का पहला जत्था इस साल पांचवी क्लास में पहुंच गया है।

यहां मुझे जो बात खास लगती है वो यह है कि यह किसी बंधे-बंधाए ढर्रे पर अमल करने की बजाय बच्चों को रास आने वाले तरीकों की मदद से सिखाने पर विश्वास करता है। मूल रूप से तमिलनाडु के रहने वाले राजीव इस स्कूल को बहुत ही प्यार और समर्पण के साथ चलाते हैं जिन्हें सारे बच्चे और उनके अभिभावक राजीव दद्दा कह कर बुलाते हैं। राजीव की टीम में शामिल बाकी लगभग सारे दीदी और दद्दा लोग आसपास के ही हैं और अध्यापन के अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं,और खुद भी हमेशा पढ़ाने के नए तरीखे सीखने लिए आतुर रहते हैं। ये लोग सारे बच्चों के साथ व्यक्तिगत रूप से जुड़ कर उनकी समस्याओं को सुनते-समझते और निदान करते हैं। साल भर यहां देश-विदेश से स्वैच्छिक कार्यकर्ता आ कर बच्चों के साथ नई-नई जानकारियां बांटते हैं, उन्हें पढ़ाते हैं। गांवों के खेती-किसानी वाले निम्न व मध्यम आयवर्ग के बच्चों के लिए इस स्कूल में पढ़ना अपने आप में एक अनुभव है। बच्चे स्कूल में ही क्यारियां बना कर चीजें उगाते हैं और उसके जरिए विज्ञान के नियमों को समझते हैं। बच्चे अपनी कुमाऊंनी संस्कृति का सम्मान करना सीखें, इसके लिए हफ्ते में एक दिन कुमाउंनी भाषा का होता है जिसमें बच्चों को कुमाउंनी में ही बात करनी होती है। इसमें वह अपनी भाषा के लोकगीत-लोककथा वगैरह सुनते-सुनाते हैं।

राजीव दद्दा महीने में एकाध बार अंग्रेजी या हिंदी की बढ़िया फिल्म या डॉक्युमेंट्री भी बच्चों को दिखाते हैं। सबसे दिलचस्प है यहां बच्चों को गणित पढ़ाने का तरीका जिसमें बच्चे बहुत मज़े-मज़े में गणित के मूलभूत सिद्धांत समझते हैं।

बहुत सारी और भी छोटी-छोटी बातें हैं जो इस स्कूल को खास बनाती हैं और एक अभिभावक के बतौर मेरे लिए ये बातें और भी खास हो जाती हैं क्योंकि मेरी बच्ची अपनी ज़िंदगी की शुरुआती तालीम यहां से हासिल कर रही है। उसे और उसके साथ के बच्चों में किताबें पढ़ने के प्रति दिलचस्पी, पेड़-पौधों के महत्व की समझ, पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता की नींव को देखते हुए मन आश्वश्त होता है कि ये बच्चे आगे चल कर भी डिविजन या नंबरों की होड़ में न पड़ कर सीखने पर ज़्यादा ध्यान देंगे।

बहरहाल इस पोस्ट का मकसद वन्या के तीसरी कक्षा यानी देवदार में जाने की सूचना इस ब्लॉग में दर्ज़ कराना था ताकि सनद रहे। वन्या की शुरुआती दो कक्षाएं हिसालू और काफल थीं उसी के नाम पर मैंने अपने ब्लॉग का नामकरण किया था। उसके बाद पहली कक्षा मेहुल (पेड़ की एक स्थानीय प्रजाति) और दूसरी कक्षा बुरांश थी और अब देवदार......

छोटे मियां यानी अरण्य को इस साल स्कूल में दाखिल कराने का इरादा हमने छोड़ दिया है। वह सवा तीन साल का हो चुका है और उससे एक साल छोटे उसके कुछ दोस्त इस साल से स्कूल जाने लगेंगे लेकिन हमारा मन नहीं मान रहा अभी उसे भेजने का। अगले साल देखा जाएगा...आपका क्या ख्याल है?

Wednesday 23 February 2011

बंसुरिया बजाओ न श्याम

आज सुबह बहुत मज़ेदार बात हुई। वन्या को स्कूल भेजने के बाद मैं सफाई वगैरह के काम में व्यस्त थी और अरू पास में ही बैठा कुछ चीजों के साथ खेल रहा था। कंप्यूटर पर पंडित छुन्नुलाल मिश्र अपनी विशिष्ठ शैली में स्वरलहरियां बहा रहे थे। थोड़ी देर बाद अरण्य ने मुझे एक लकड़ी की छोटी सी डंडी दिखाते हुए पूछा, "अम्मां इसकी बांसुली बना लूं?" मैंने कहा, "हां बना लो!"


दरअसल अरण्य को वाद्यों का बहुत शौक है उसका सपना है कि जब कभी उसका अकेले का कमरा होगा तो उसमें बड़ा वाला ड्रम, तबला, हारमोनियम, गिटार, सितार, खड़ताल और एक बड़ी वाली घंटी (ये पता नहीं वह किसके लिए कहता है) ज़रूर होना चाहिए। शायद हमारे यहां अक्सर होने वाले संगीत कार्यक्रमों में कलाकारों को देख कर ही उसका रुझान इस ओर हुआ हो। खैर तो जब वह लकड़ी को बांसुरी की तरह होंठ पर सजा कर मुंह से आवाज़ निकालने लगा तो मैं उसकी ओर देखने लगी। कुछ देर बजाने के बाद वह बोला, "अले....बजा तो रहा हूं!! वह कंप्यूटर की तरफ देख कर बोल रहा था। मिश्रा जी के बोल सुन कर मुझे समझ में आया कि माजरा क्या है। वह गा रहे थे "अब ना बजाओ बंसुरिया श्याम"। यहां पर 'न बजाओ- न बजाओ' को ही बार-बार दोहरा रहे थे जिसे अरू समझ रहा था कि जैसे वो मनुहार कर रहे हों कि "बजाओ ना...बजाओ ना ..बजाओ "। इसलिए अरू उनके अनुरोध का मान रखने के लिए बांसुरी बजाने की एक्टिंग कर रहा था।

मैंने हंसते-हंसते उसे बताया कि वो बजाने के लिए नहीं बल्कि ना बजाने के लिए कह रहे हैं। "नहीं वो कह रहे हैं बजाओ ना बजाओ ना" अरू अपनी बात पर अड़ा रहा। "अच्छा तुम ध्यान से सुनो तो तुम्हें समझ आ जाएगा, मैंने सलाह दी। अरू ने थोड़ी देर सुनने की कोशिश की और फिर बोला, "अले अम्मा, वो कह रहे हैं कि शाम को मत बजाओ..." अभी तो बजा सकते हैं। इस बार वह श्याम को शाम समझ बैठा था। उसके बाद मेरी जो हंसी फूटी क्या बताऊं और अरण्य चेहरे पर बड़ा सा प्रश्नवाचक चिन्ह लिए मेरी ओर ताके जा रहा था।

Saturday 19 February 2011

अरू का अंग्रेज़ी ज्ञान

अरण्य को बहुत अच्छा लगता है जब उसे किताबों से कहानियां पढ़ कर सुनाई जाएं लेकिन किताब दिखा कर ही अगर उसे अ-आ, क-ख, एबीसीडी या एकदोतीन सिखाने की कोशिश करो तो उसे पसंद नहीं आता। बहरहाल कुछ दिन पहले जब मैं अरण्य को चिढ़ाने के लिहाज़ से वन्या से कह रही थी कि, “देखो अरू को एबीसीडी भी नहीं आती, पता नहीं इसका स्कूल में एडमिशन कैसे होगा।
"आती है जी," तपाक से जवाब देते हुए अरू महाशय बोले कि मुझे पूरे दस तक एबीसीडी आती है।" उसके इस लाजवाब कर देने वाले जवाब के बाद मैं और वन्या एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। ज़ाहिर है कि उसे पता था कि गिनती या एबीसीडी में से कोई चीज़ तो दस तक आनी चाहिए तो एबीसीडी ही सही।



कुछ दिन पहले हम अपने एक दोस्त के घर पर थे तो उनकी किशोरवय बेटी ने मुझसे आ कर पूछा, "मौसी अरू इतनी ज़ल्दी पढ़ना कैसे सीख गया?" मैंने जवाब दिया, “नहीं तो …वह तो अभी हिंदी अंग्रेज़ी अक्षर तक नहीं पहचान पाता...क्यों पूछ रही हो?
"अरे मैंने उसे बिस्कुट का पैकेट पकड़ाया तो बहुत ध्यान से रैपर पढ़ते हुए उसने कहा कि ये तो ब्रिटेनिया का गुडडे बिस्कुट है, मुझे कोई दूसरा दो। जब उसने पूछा कि तुम्हें कैसे पता तो उसने जहां रैपर पर लिखा था उसे हिज़्जों में बांट कर पढ़ने के अंदाज़ में बोला देखो लिखा है ना ब्रि...टे...नि...या।" फिर नीचे पढ़ कर दिखाया कि, "देखो ये लिखा है गु..ड...डे"। तीन साल के बच्चे को इतना आत्मविश्वास के साथ पढ़ते देख कर उसे यकीन नहीं हुआ इसलिए उसने उसने एक चॉकलेट निकाल कर पूछा, "अच्छा बताओ इसमें क्या लिखा है?" तुरंत जवाब आया, "कैडबरी डेयरी मिल्क"!


अरू की प्रतिभा से वह इतनी प्रभावित हो गई कि तुरंत मेरे पास पुत्र प्रशंसा हेतु पहुंच गई। तब मैंने उसके ज्ञान चक्षु खोलते हुए बताया कि, "बेटा जब एक दिन वन्या के पिता जी उसे तरह-तरह की चीज़ें बनाने वाली कंपनियों, उनके ब्रांड और उनके विज्ञापनों का गोरखधंधा समझाने के लिहाज से बिस्कुट, चॉकलेट, टॉफी और साबुन जैसी चीज़ों का उदाहरण दे रहे थे तो अरण्य जी भी ध्यान से सुन रहे थे। इसलिए अब घर पर जब भी कोई चीज़ आती है अरण्य वन्या से या किसी से भी उसका नाम बाकायदा कहां पर क्या लिखा है, करके पूछ लेते हैं और अक्सर दूसरों के सामने अपने इस ज्ञान का प्रदर्शन बहुत शानदार तरीके से करते हैं। हमारे घर पर क्योंकि टीवी नहीं है इसलिए जब भी कहीं दूसरी जगह टीवी देखने का मौका मिलता है तो अपनी जानी-पहचानी चीज़ों के विज्ञापन देख कर वह खुश हो उठता है, "देखो दीदी, अंकल चिप्स..टीवी में भी आ रहा है।"