Wednesday 24 November 2010
वन्या का खजाना
वन्या मानती है कि भूत-प्रेत जैसी कोई चीज़ नहीं होती क्योंकि बिना यह बात समझाए उसे हिंदी और अंग्रेज़ी की कई क्लासिक कहानियां सुना पाना मुश्किल होता। हालांकि परियों और जिन्नों के बारे में भी उसे यही बात बताई गई थी लेकिन उनका अस्तित्व न होने की बात पर वन्या पूरा विश्वास नहीं करती। उसे ज़मीन के नीचे खजाने छुपे होने पर भी पर भरोसा है।
एक दिन जब वह स्कूल लौटी तो उसके चेहरे पर वह विशेष भाव था जो अक्सर होता है और जिसका मतलब होता है कि उसके पास बताने के लिए बहुत जबरदस्त खबर है। मैंने भी अपेक्षित उतावली दिखाते हुए मनुहार की कि, "प्लीज़ बता न क्या बात है?"
काश कि मैं उस समय उसके चेहरे पर खुशी और उत्तेजना के उन भावों को शब्दों से समझा पाती!! "मम्मा, पता है आज मुझे खज़ाना मिला।
यानी मेरा अंदाज़ा बिल्कुल ठीक था, खबर सचमुच बहुत बड़ी थी। इसे पूरी संज़ीदगी के साथ सुना जाना था और मैंने अपनी छोटी आंखों को जितना कर सकती थी बड़ा करते हुए पूछा, "खजाना....? कहां?"
"स्कूल में, हमारी क्यारी में," वन्या ने जवाब दिया। "आज न हमारी निराई-गुड़ाई की क्लास थी, मैं अपनी क्यारी से घास निकाल रही थी तो मुझे उसके नीचे दबे खजाने से चार मोती मिले।" फिर थोड़ा रुक कर कुछ सोचते हुए उसने आगे कहा, "मतलब तीन मोती थे और एक बटन था।" कहीं यह बात मेरी नज़र में खज़ाने का मोल कम न कर दे इसलिए उसने जोर देते हुए कहा, "लेकिन वह बटन बहुत चमकीला था सोने जैसा।"
मेरे चेहरे पर खुशी मिश्रित आश्चर्य का भाव अब तक उसी तरह से चिपका था। अब वन्या ने थोड़ा मुंह लटकाते हुए कहा, "लेकिन वो बटन हर्ष ने ले लिया, वो कह रहा था कि वो उसकी जैकेट का है जो गिर कर खो गया था।" बटन हाथ से निकल जाने का दुख पल भर में बिसराते हुए वन्या हंसी उड़ाती हुई आवाज़ में बोली, "मैंने आद्या को बताया तो वो भी अपनी क्यारी खोदने लगी। खोदती रही...खोदती रही लेकिन उसको बस एक टूटा मोती मिला।"
अपने एकालाप को रोक कर अब उसने इस पूरे प्रकरण पर मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए अब मेरी ओर रुख किया। मैंने तुरंत परम जिज्ञासा के साथ सवाल किया, "लेकिन तुमने उस खजाने का क्या किया?"
"मैंने पूरा खज़ाना खोदा नहीं, क्योंकि फिर सबको पता चल जाता। मैंने सारे मोती वहीं मिट्टी में दबा दिए और उसके ऊपर एक सफेद पत्थर रख दिए ताकि अगली बार आसानी से मुझे वह जगह मिल जाए।" वन्या ने निश्चिंतता से जवाब दिया। " लेकिन तुम उस खज़ाने का करोगी क्या?"
" कुछ भी कर सकती हूं, माला बनानी होगी तो वहीं से मोती ले सकती हूं या आद्या, मेघा, पारुल वगैरह के लिए भी माला बना सकती हूं.....वन्या ने इस सबसे फालतू सवाल बिना कुछ सोचे एक लापरवाह सा जवाब दे कर मुझे लाजवाब कर दिया।
ऐसे ही एक बार हमारे यहां रुकी एक अमेरिकी विद्यार्थी ने वन्या को एक छोटा सा चमकीला कांच का टुकड़ा देते हुए कहा कि यह तुम्हारा लकी चार्म है। वन्या ने मुझसे मतलब पूछा तो मैंने ऐसे ही कह दिया कि इससे जादू होता है। बात आई-गई हो गई। कुछ दिनों बाद वन्या नीचे से भागती-हांफती आई और बहुत खुफिया तरीके से फुसफुसाते हुए बोली, "अम्मा, आपने सही कहा था वो जादू वाला कांच है।" मुझे कुछ हवा नहीं थी कि किस बारे में बात हो रही है लेकिन इस बात को ज़ाहिर करना वन्या को नाराज़ करने का सबब बन सकता था, इसलिए मैंने चेहरे पर "देखा मैंने कहा था ना" वाला भाव लाते हुए बत्तीसी दिखा दी।
"पता है क्या हुआ... मैंने कागज को जो नाव बनाई थी वो मैंने इस वाली पॉकेट में डाली थी, इसी में जादू वाला कांच भी था। लेकिन जब मैं नीचे खेल रही थी मैंने पॉकेट में हाथ डाल कर देखा तो वो कांच दूसरे वाली पॉकेट में पहुंच चुका था। हुआ न जादू!! और क्या... भला इससे बड़ा जादू कुछ हो सकता है भला?
मैं पूरी शिद्दत के साथ चाहा कि बच्चों में यह मासूमियत और छोटी-छोटी चीज़ों में चमत्कारिक खुशियां खोज निकालने की उनकी काबिलियत हमेशा बने रहे,परियों में, जादू में और मिट्टी में दबे खजानों पर उनका भरोसा हमेशा बना रहे।
Wednesday 20 October 2010
स्पेनिश नाम!!
वन्या ने बहुत जल्दी ही अक्षरों के साथ जान-पहचान कर ली थी जबकि अरण्य जी जो इस दिसंबर 15 को तीन साल के हो जाएंगे शुरुआती अक्षर ज्ञान के प्रति कोई रुचि जाहिर नहीं की है। अलबत्ता किताबों से उन्हें बेइंतिहां प्यार है। जब देखो तब कोई न कोई किताब ले कर पहुंच जाता है कि, "ये वाली बुक पला दो" और उसके बाद पालथी मार कर बैठ कर शुरुआती पंक्ति भी खुद ही बोल देता है, "हां तो एक बाल की बात है कि...अब पलाओ क्या होता है...।"
कुछ दिन पहले वन्या की चित्रों वाली एक भारी बड़ी सी किताब ले आया और बोला, "अम्मां, इछमें भौत अच्छी कहानी होती है, मुझे पला दो।" अब ऐसे में तो बचने का कोई सवाल ही नहीं होता तो हमने वह किताब पढ़नी शुरु कर दी। उस किताब में सुंदर चित्र बने थे जिनके नाम अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच, स्पेनिश वगैरह भाषाओं में भी दिए गए थे।
मैंने अरु को हंसाने के लिहाज से अंग्रेज़ी नामों के साथ उनके स्पेनिश नाम मज़ाकिया तरीके से पढ़ने शुरु किए। जैसे ड्रम के लिए स्पेनिश नाम अल टैंबोर, नाव यानि बोट के लिए अल बोटे, सूरज यानि सन के लिए अल सोल वगैरह-वगैरह।
अचानक अरण्य ने मुझे रोकते हुए कहा, "मम्मा, पटा है मेला छपेनिश नाम क्या है?" मैंने सवालिया नज़र से उसकी ओर देखते हुए कहा, "क्या है?"
"अल अनिया!"
सुनते ही मेरी हंसी फूट पड़ी। दरअसल अरण्य अपना नाम ऐसे ही बोलता है ‘अलन्या’ तो उसे स्पेनिश में तब्दील करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई ‘अल’ को अलग किया और उसमें जोड़ दिया ‘अनिया’। बन गया जी अरण्य का स्पेनिश नाम "अल अनिया"।
कुछ दिन पहले वन्या की चित्रों वाली एक भारी बड़ी सी किताब ले आया और बोला, "अम्मां, इछमें भौत अच्छी कहानी होती है, मुझे पला दो।" अब ऐसे में तो बचने का कोई सवाल ही नहीं होता तो हमने वह किताब पढ़नी शुरु कर दी। उस किताब में सुंदर चित्र बने थे जिनके नाम अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच, स्पेनिश वगैरह भाषाओं में भी दिए गए थे।
मैंने अरु को हंसाने के लिहाज से अंग्रेज़ी नामों के साथ उनके स्पेनिश नाम मज़ाकिया तरीके से पढ़ने शुरु किए। जैसे ड्रम के लिए स्पेनिश नाम अल टैंबोर, नाव यानि बोट के लिए अल बोटे, सूरज यानि सन के लिए अल सोल वगैरह-वगैरह।
अचानक अरण्य ने मुझे रोकते हुए कहा, "मम्मा, पटा है मेला छपेनिश नाम क्या है?" मैंने सवालिया नज़र से उसकी ओर देखते हुए कहा, "क्या है?"
"अल अनिया!"
सुनते ही मेरी हंसी फूट पड़ी। दरअसल अरण्य अपना नाम ऐसे ही बोलता है ‘अलन्या’ तो उसे स्पेनिश में तब्दील करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई ‘अल’ को अलग किया और उसमें जोड़ दिया ‘अनिया’। बन गया जी अरण्य का स्पेनिश नाम "अल अनिया"।
Friday 3 September 2010
कौन है ऊपर?
इस ब्लॉग के लिए जब भी लिखने की सोचती हूं अरू की ही बातें ज़्यादा याद रहती हैं क्योंकि एक तो वन्या थोड़ी बड़ी हो गई है बेवकूफी भरी शरारतों के लिए, दूसरा वो अपनी उम्र से कुछ ज़्यादा गंभीर लगती है मुझे और तीसरा कि दिन का ज़्यादातर हिस्सा उसका स्कूल में और वहां आने जाने में बीत जाता है। अब मैं उसकी बहुत छोटेपन की बातों को याद करने की कोशिश करती हूं तो ठोस सा कुछ याद ही नहीं आता (इतनी जल्दी भूल गई मैं उन प्यारी बातों को...!!)
हां, एक बात है जो मैं अक्सर याद करती हूं। उस वक्त वन्या तीन या साढ़े तीन साल की थी। वो घर के बाहर हरबीरदा के साथ बैठी बातें कर रही थी। मैं घर के अंदर थी क्योंकि हमारे घर की खिड़की बहुत नीची है तो मुझे उन दोनों की बातचीत साफ सुनाई दे रही थी। बहरहाल वन्या हरबीरदा, जो सोनापानी में हमारे साथ काम करते हैं, से पूछ रही थी कि आसमान में क्या-क्या होता है। उन्होंने जवाब दिया कुछ नहीं, वन्या ने बहुत आश्चर्य से कहा क्यों आपको सूरज और चंदामामा नहीं दिखते क्या। हरबीरदा ने हंसते हुए कहा हां दिखता है।
वन्या ने फिर पूछा और क्या होता है आसमान में। इस बार थोड़ी होशियारी दिखाते हुए उन्होंने जवाब दिया तारे भी होते हैं, बादल भी होते हैं कभी-कभी इंद्रधनुष भी होता है। हां..और चिड़िया, कौए, तोते भी होते है...बहुत विचारमग्न मुद्रा में वन्या ने उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए फिर पूछा, "लेकिन और क्या होता है?" अब हरबीरदा को कोई जवाब नहीं सूझा तो वन्या बोली, "क्यों भगवान जी नहीं रहते क्या वहां।" हरबीरदा बोले, "भगवान तो मंदिर में रहते हैं!! वन्या का जवाब था हां वहां भी आते हैं कभी-कभी लेकिन घर तो उनका आसमान में ही है। दरअसल उसने पोगो में दिखाए जा रहे सीरियल कृष्णा में देखा था कि कृष्ण जन्म के समय सारे देवी-देवता ऊपर से फूल बरसा रहे हैं तो शायद यह बात उसकी कल्पना में बैठी हुई थी। ज़ाहिर सी बात है हरबीरदा लाजवाब थे।
लेकिन वन्या की आगे की बात सुन कर मैं चौंक कर रह गई जब उसने कहा, “पता है और कौन रहता है आसमान में?” जवाब में हरबीरदा ने कहा, “नहीं! तुम बताओ कौन रहता है? वन्या बोली, जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो उनके मम्मी-पापा आसमान में चले जाते हैं। उन्होंने कहा, "मैं तो नहीं जाऊंगा।" वन्या ने कहा, “जब पवन दादी (पवन हरबीरदा का बेटा है जो सोनापानी में ही रहता था और तब नवीं या दसवीं में था। दादी का संबोधन इस इलाके में बड़े भाई के लिए होता है) बड़े हो जाएंगे तो आपका घर आसमान में हो जाएगा। जब मैं बहुत बड़ी हो जाऊंगी तो मेरी मम्मी भी आसमान में चली जाएगी।"
मैं कमरे में बैठी- बैठी कांप रही थी कि मेरी इतनी छोटी बच्ची ये सब कहां से सीख रही है, उसके मन पर कितना खराब असर पड़ेगा इस तरह की बातों का...वगैरह वगैरह। इतने में वन्या की आवाज़ आई कितने मज़े आते होंगे न ऊपर। भगवान जी के महल में रहो और मज़े से चॉकलेट खाओ। ऊपर से नीचे फेंक दोगे तो कोई उसे पकड़ कर खा लेगा। मतलब कि बातों का सिलसिला फिर बेसिरपैर की बकवास की ओर मुड़ गया और मैंने चैन की सांस ली। न हरबीरदा ने कभी मुझसे इस बात का ज़िक्र किया न मैंने कभी दोबारा वन्या का ध्यान इस ओर दिलाया, लेकिन यह बात मुझे भूलती नहीं!
फोटो में उस समय की वन्या
Sunday 29 August 2010
पिंकू का पप्पा
मैं दादी बन गई!! हां भई आशीष और मैं दादा-दादी और वन्या बुआ बन गए हैं। और अरण्य साहब पापा बन गए हैं पिंकू के। हालांकि पिंकू जी अरण्य के पैदा होने से पहले से ही घर में विराजमान हैं लेकिन उन्हें अरू का बेटा बनने का सौभाग्य हाल ही में मिला। एक दिन अचानक ही अरण्य ने उसका पप्पा बनने का फैसला कर लिया और आशीष से बोला कि आप इसे सुंदरू-मुंदरू बोलो क्योंकि आप इसके दादा जी हो। अरू के अपने दादा जी उसे सुंदरू-मुंदरू कहके लाड़ जताते हैं तो आशीष को भी उसी लाइन पर चलने का आदेश मिला। वन्या को भी बुआ का पात्र कई बार इच्छा न होने के बावजूद जब-तब निभाना पड़ जाता है। इन दिनों हमें हर वक्त पिंकू का ध्यान रखना पड़ता है, कभी अरू आ कर कहता है आपने सुना नहीं पिंकू रो रहा है कि मुझे गोदी में उठाओ। कभी पिंकू को कुछ खास चीज़ खाने को चाहिए होती है। कभी वो चार लड्डू खा लेता है जिससे उसके पेट में दर्द हो जाता है। एक-दो बार अरण्य ने आधी रात को उठ कर भी पिंकू की खोज-खबर ली है, पिंकू सोता भी अपने पप्पा के साथ है। अरू किसी भी बात पर चाहे कितनी ही ज़ोर से क्यों न रो रहा हो, अगर उससे कहो कि पिंकू क्या सोचेगा पप्पा को रोते देख कर, तो वह फौरन चुप हो कर हंसने लगता है। सबसे मज़ेदार बात यह है कि उसे भी पता है कि यह पूरा खेल है लेकिन वह इस खेल को इतनी संज़ीदगी से खेलता है कि हंसी आती है।
पिंकू और उसके पप्पा की फोटो भी साथ में दी है।
Friday 6 August 2010
Thursday 5 August 2010
आप नानकी हो!
"नानकी!....नानकी!" अरू किसी को आवाज़ दे रहा था। मैं कपड़े धूप में सुखाने डाल रही थी।
"किसे आवाज़ दे रहे हो?" मैंने पूछा।
"आपकोइ तो बुलाला हूं!"
"लेकिन मेरा नाम तो नानकी नहीं है, मैं तो अम्मा हूं!"
"नहीं....आपका नाम नानकी होगा अबझे!"
"क्यों?"
"क्यूंकि गुलु तेग बहादुल की मम्मी का नाम नानकी है, मैं अभी गुलु तेग बहादुल बन गया हूं ना....इछलिए आप नानकी हो।"
मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले आशीष वन्या को अमर चित्र कथा में से गुरू तेग बहादुर की कहानी सुना रहा था तो अरू महाशय बहुत ध्यान से सुन रहे थे। आज जब घर में अकेले खेलते खेलते उसे अचानक वो कहानी याद आ गई और उन्होंने यह नाटक रच डाला और मुझे भी मंच पर उतार दिया।
आजकल ऐसा बहुत होता है। वो कभी भी कुछ भी बन जाता है और वन्या, मुझे और आशीष को उसके साथ अभिनय करना होता है। कभी जंबो हाथी बन जाता है और घुटनों के बल चलता हुआ कमरे में इधर-उधर भटकता हुआ गन्ने के खेत ढूंढता है। ये जंबो फिल्म का असर है। कभी मगरमच्छ बन कर पेट के बल सरकता हुआ आपको खाने आता है। मगरमच्छ बनने का ख्याल ग्वालियर में मगरमच्छ फार्म देखने के बाद आया।
वन्या के खेल भी ऐसे ही होते हैं लेकिन उनमें आपको अपने मन से संवाद बोलने की आज़ादी नहीं होती। वन्या पहले से ही बता देती है कि जब मैं ऐसा बोलूंगी तो आप ये जवाब देना। हालांकि वो खेल अधिकतर तब खेलती है जब उसका हमउम्र बच्चे साथ में होते हैं। अरण्य के साथ खेलते हुए वो उसी के कहे अनुसार चलती है। दोनों का पसंदीदा खेल है तकियों से और चद्दरों से अपने लिए घर बनाना। तकिए वाले घर तो वो खुद बना लेते हैं लेकिन दीवार पर लगी कीलों पर चादर अटका कर बड़े घर बनाने के लिए उन्हें मेरी मदद चाहिए होती है जिसके एवज में उनसे मनचाहा काम करवाया जा सकता है। दोनों के साथ खेलना कभी दुनिया का सबसे मजेदार काम लगता है और कभी हद दर्जे का उबाऊ!
"किसे आवाज़ दे रहे हो?" मैंने पूछा।
"आपकोइ तो बुलाला हूं!"
"लेकिन मेरा नाम तो नानकी नहीं है, मैं तो अम्मा हूं!"
"नहीं....आपका नाम नानकी होगा अबझे!"
"क्यों?"
"क्यूंकि गुलु तेग बहादुल की मम्मी का नाम नानकी है, मैं अभी गुलु तेग बहादुल बन गया हूं ना....इछलिए आप नानकी हो।"
मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले आशीष वन्या को अमर चित्र कथा में से गुरू तेग बहादुर की कहानी सुना रहा था तो अरू महाशय बहुत ध्यान से सुन रहे थे। आज जब घर में अकेले खेलते खेलते उसे अचानक वो कहानी याद आ गई और उन्होंने यह नाटक रच डाला और मुझे भी मंच पर उतार दिया।
आजकल ऐसा बहुत होता है। वो कभी भी कुछ भी बन जाता है और वन्या, मुझे और आशीष को उसके साथ अभिनय करना होता है। कभी जंबो हाथी बन जाता है और घुटनों के बल चलता हुआ कमरे में इधर-उधर भटकता हुआ गन्ने के खेत ढूंढता है। ये जंबो फिल्म का असर है। कभी मगरमच्छ बन कर पेट के बल सरकता हुआ आपको खाने आता है। मगरमच्छ बनने का ख्याल ग्वालियर में मगरमच्छ फार्म देखने के बाद आया।
वन्या के खेल भी ऐसे ही होते हैं लेकिन उनमें आपको अपने मन से संवाद बोलने की आज़ादी नहीं होती। वन्या पहले से ही बता देती है कि जब मैं ऐसा बोलूंगी तो आप ये जवाब देना। हालांकि वो खेल अधिकतर तब खेलती है जब उसका हमउम्र बच्चे साथ में होते हैं। अरण्य के साथ खेलते हुए वो उसी के कहे अनुसार चलती है। दोनों का पसंदीदा खेल है तकियों से और चद्दरों से अपने लिए घर बनाना। तकिए वाले घर तो वो खुद बना लेते हैं लेकिन दीवार पर लगी कीलों पर चादर अटका कर बड़े घर बनाने के लिए उन्हें मेरी मदद चाहिए होती है जिसके एवज में उनसे मनचाहा काम करवाया जा सकता है। दोनों के साथ खेलना कभी दुनिया का सबसे मजेदार काम लगता है और कभी हद दर्जे का उबाऊ!
Friday 30 July 2010
गुड़िया के कपड़े और चमक-चमक
आज वन्या और मैंने मिल कर गुड़िया के लिए कपड़े सिले। गुलाबी सिल्क का लहंगा और नीले-गुलाबी रंग की कुर्ती। वन्या कपड़े देख कर खुश थी और मैं वन्या को देख कर। वन्या अब सात साल की होने वाली है और अब तक गुड़ियों में उसकी खास दिलचस्पी नहीं रही है। लेकिन इस बार चंडीगढ़ में ओशी का बार्बी का वॉर्डरोब देख कर उसे लगा उसकी गुड़िया के पास तो बदलने के लिए कोई कपड़े ही नहीं हैं इसलिए यह नया लहंगा-कुर्ती सिला गया। नए कपड़े पहनाने के बाद ही गुड़िया में वन्या की दिलचस्पी खत्म हो गई और उसे उसी कोने में रख दिया गया जहां महीनों तक उसकी कोई सुध नहीं ली जाती।
अरण्य जब भी कोई नई शैतानी करता है मैं सोचती हूं इसे तो जरूर नोट करूंगी कहीं ताकि बाद में भी कभी याद करके हंस सकूं लेकिन अब तक तो ऐसा संभव हो नहीं पाया। आज जब लिखने बैठी हूं तो सब कुछ गड्ड-मड्ड हो रहा है। हालांकि उसकी चमक-चमक वाली बात पूरी तरह से मेरे दिमाग से निकल चुकी थी लेकिन ममता के साथ फोन पर हुई बातचीत से मुझे वह बात याद आ गई।
ममता हमारी पारिवारिक दोस्त हैं। उनकी बेटी और वन्या लगभग बराबर उम्र के हैं और जब से पैदा हुए हैं हर गर्मियों में 15-20 दिन साथ बिताते हैं। इस जून में भी ममता और तारा हमारे घर आए थे। एक दिन अरण्य दिन भर बहुत चिड़चिड़ा और जिद्दी बना रहा और हमें बहुत परेशान किया। शाम होते होते मैंने और ममता ने सोचा कि कुछ समय उस पर बिल्कुल ध्यान न दिया जाए और हम लोग अपना-अपना काम करने लगें तो शायद वह कुछ शांत हो।
ममता एक किताब ले कर तारा और वन्या को कहानी सुनाने लगी, अरण्य को अब तक यह अहसास हो गया था कि कोई उसे घास नहीं डाल रहा है तो वो भी चुपचाप कहानी सुनने बैठ गया। ममता तारा और वन्या से कुछ-कुछ पूछ कर अरण्य को यह जता रही थी कि हम लोग तुमसे नाराज़ है। अरण्य ने ममता का ध्यान अपनी ओर खींचने के उद्देश्य से कहानी के किसी हिस्से के बाद बहुत संजीदा हो कर पूछा, "इछका का मटलब है?" ममता ने जवाब देने की बजाय नाराजगी भरी आंखों से तरेर कर उसे देखा।
थोड़ी देर चुपचाप वहां से उठ कर अरण्य मेरे पास आया। मैं बिना उस पर ध्यान दिए अपने काम में लगी रही लेकिन छिपी आंखों से उस पर नज़र रखे थी। इस अंदाज में जैसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उससे बोल रहा है या नहीं, अरण्य ने मुझसे कहा, "ये ममटा मौशी बड़ा चमक-चमक के देख रही है मुझे!" पहले तो मुझे समझ नहीं आया लेकिन जब ममता ने मुझे बताया कि ये चमक-चमक शब्द उसने उनकी गुस्से वाली आंखों के लिए ईज़ाद किया है तो हमारा हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया। कुछ दिन पहले ही एक कलैंडर में गणेश जी की आंखों के लिए भी उसने यही शब्द इस्तेमाल किया तो मैंने गौर किया कि सचमुच गणेश जी भी उसमें कुछ गुस्से से भरे लग रहे थे।
अरण्य जब भी कोई नई शैतानी करता है मैं सोचती हूं इसे तो जरूर नोट करूंगी कहीं ताकि बाद में भी कभी याद करके हंस सकूं लेकिन अब तक तो ऐसा संभव हो नहीं पाया। आज जब लिखने बैठी हूं तो सब कुछ गड्ड-मड्ड हो रहा है। हालांकि उसकी चमक-चमक वाली बात पूरी तरह से मेरे दिमाग से निकल चुकी थी लेकिन ममता के साथ फोन पर हुई बातचीत से मुझे वह बात याद आ गई।
ममता हमारी पारिवारिक दोस्त हैं। उनकी बेटी और वन्या लगभग बराबर उम्र के हैं और जब से पैदा हुए हैं हर गर्मियों में 15-20 दिन साथ बिताते हैं। इस जून में भी ममता और तारा हमारे घर आए थे। एक दिन अरण्य दिन भर बहुत चिड़चिड़ा और जिद्दी बना रहा और हमें बहुत परेशान किया। शाम होते होते मैंने और ममता ने सोचा कि कुछ समय उस पर बिल्कुल ध्यान न दिया जाए और हम लोग अपना-अपना काम करने लगें तो शायद वह कुछ शांत हो।
ममता एक किताब ले कर तारा और वन्या को कहानी सुनाने लगी, अरण्य को अब तक यह अहसास हो गया था कि कोई उसे घास नहीं डाल रहा है तो वो भी चुपचाप कहानी सुनने बैठ गया। ममता तारा और वन्या से कुछ-कुछ पूछ कर अरण्य को यह जता रही थी कि हम लोग तुमसे नाराज़ है। अरण्य ने ममता का ध्यान अपनी ओर खींचने के उद्देश्य से कहानी के किसी हिस्से के बाद बहुत संजीदा हो कर पूछा, "इछका का मटलब है?" ममता ने जवाब देने की बजाय नाराजगी भरी आंखों से तरेर कर उसे देखा।
थोड़ी देर चुपचाप वहां से उठ कर अरण्य मेरे पास आया। मैं बिना उस पर ध्यान दिए अपने काम में लगी रही लेकिन छिपी आंखों से उस पर नज़र रखे थी। इस अंदाज में जैसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उससे बोल रहा है या नहीं, अरण्य ने मुझसे कहा, "ये ममटा मौशी बड़ा चमक-चमक के देख रही है मुझे!" पहले तो मुझे समझ नहीं आया लेकिन जब ममता ने मुझे बताया कि ये चमक-चमक शब्द उसने उनकी गुस्से वाली आंखों के लिए ईज़ाद किया है तो हमारा हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया। कुछ दिन पहले ही एक कलैंडर में गणेश जी की आंखों के लिए भी उसने यही शब्द इस्तेमाल किया तो मैंने गौर किया कि सचमुच गणेश जी भी उसमें कुछ गुस्से से भरे लग रहे थे।
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