Thursday 5 August 2010

आप नानकी हो!

"नानकी!....नानकी!" अरू किसी को आवाज़ दे रहा था। मैं कपड़े धूप में सुखाने डाल रही थी।
"किसे आवाज़ दे रहे हो?" मैंने पूछा।
"आपकोइ तो बुलाला हूं!"
"लेकिन मेरा नाम तो नानकी नहीं है, मैं तो अम्मा हूं!"
"नहीं....आपका नाम नानकी होगा अबझे!"
"क्यों?"
"क्यूंकि गुलु तेग बहादुल की मम्मी का नाम नानकी है, मैं अभी गुलु तेग बहादुल बन गया हूं ना....इछलिए आप नानकी हो।"



मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले आशीष वन्या को अमर चित्र कथा में से गुरू तेग बहादुर की कहानी सुना रहा था तो अरू महाशय बहुत ध्यान से सुन रहे थे। आज जब घर में अकेले खेलते खेलते उसे अचानक वो कहानी याद आ गई और उन्होंने यह नाटक रच डाला और मुझे भी मंच पर उतार दिया।
आजकल ऐसा बहुत होता है। वो कभी भी कुछ भी बन जाता है और वन्या, मुझे और आशीष को उसके साथ अभिनय करना होता है। कभी जंबो हाथी बन जाता है और घुटनों के बल चलता हुआ कमरे में इधर-उधर भटकता हुआ गन्ने के खेत ढूंढता है। ये जंबो फिल्म का असर है। कभी मगरमच्छ बन कर पेट के बल सरकता हुआ आपको खाने आता है। मगरमच्छ बनने का ख्याल ग्वालियर में मगरमच्छ फार्म देखने के बाद आया।



वन्या के खेल भी ऐसे ही होते हैं लेकिन उनमें आपको अपने मन से संवाद बोलने की आज़ादी नहीं होती। वन्या पहले से ही बता देती है कि जब मैं ऐसा बोलूंगी तो आप ये जवाब देना। हालांकि वो खेल अधिकतर तब खेलती है जब उसका हमउम्र बच्चे साथ में होते हैं। अरण्य के साथ खेलते हुए वो उसी के कहे अनुसार चलती है। दोनों का पसंदीदा खेल है तकियों से और चद्दरों से अपने लिए घर बनाना। तकिए वाले घर तो वो खुद बना लेते हैं लेकिन दीवार पर लगी कीलों पर चादर अटका कर बड़े घर बनाने के लिए उन्हें मेरी मदद चाहिए होती है जिसके एवज में उनसे मनचाहा काम करवाया जा सकता है। दोनों के साथ खेलना कभी दुनिया का सबसे मजेदार काम लगता है और कभी हद दर्जे का उबाऊ!

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